Monday, 11 June 2012

विकलांगों को मुख्यधारा में शामिल करने की जरूरत

Handicapped men should be come in main stream
अमेरिका में 12 प्रतिशत आबादी अशक्त-विकलांग के रूप में गिनी जाती है। इंग्लैंड में यह प्रतिशत 18 है तो जर्मनी में 9 प्रतिशत लोग विकलांग की श्रेणी में आते हैं। भारत में सरकारी आंकड़ों के अनुसार दो प्रतिशत लोग विकलांग की श्रेणी में आते हैं। विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसरों को प्रोत्साहन देने वाले केंद्र एनसीपीईडीपी के जावेद अबीदी इन आंकड़ों के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। भारतीय वातावरण अथवा माहौल में ऐसी क्या खास बात है कि हमारे यहां दुनिया के अन्य देशों की तुलना में केवल 1/10 अथवा 1/5 अशक्त लोग ही हैं। क्या इस मामले में अपने देश में हुई गिनती में कोई खामी हुई है? यह चौंकाने वाली बात है कि 2000 तक यानी आजादी के 53 साल बाद भी भारत की जनगणना रिपोर्ट में एक भी अशक्त व्यक्ति नहीं गिना गया। दूसरे शब्दों में कहें तो जो लोग अपने देश में नीतियों का निर्धारण करते हैं, फैसले लेते हैं, सरकारी योजनाओं के लिए धन का आवंटन करते हैं उनके दिमाग में विकलांगों का अस्तित्व ही नहीं है। साफ है कि हम उनके लिए कुछ नहीं करते हैं। लिहाजा आजादी के बाद पहले 53 वर्षो तक हम अपने देश में बुनियादी ढांचे का निर्माण तो करते रहे, लेकिन हमने विकलांगों के लिए कुछ करने अथवा उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी। हमारा बुनियादी ढांचा विकलांगों का हितैषी नहीं है। इसका परिणाम यह है कि वे और अधिक कठिनाइयों से घिरते जा रहे हैं।
हम विकलांग लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं। हमारे शो में आए एक अन्य एक्सपर्ट केतन कोठारी ने हमें बताया कि व्यापक रूप से हम विकलांग लोगों के प्रति दो तरह की प्रतिक्रिया करते हैं। पहली यह कि उन्होंने जरूर अपने पूर्व जन्म में कुछ गलत किया होगा जिसके कारण उन्हें इस जन्म में विकलांग के रूप में जन्म लेना पड़ा अर्थात उन्हें यह सजा मिलनी ही चाहिए और दूसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि आइए हम उनका इस्तेमाल स्वर्ग का टिकट पाने के लिए करें। इस नजरिए के तहत उन्हें दया का पात्र समझा जाता है और उन संस्थाओं को कुछ दान दिया जाता है जो विकलांग लोगों के कल्याण के लिए काम कर रही हैं। यदि हममें से अधिकांश लोग इस तरह का व्यवहार करते हैं तो इसका मतलब है कि हमें आईने में अपनी एक दुखद तस्वीर देखनी चाहिए।
इस स्थिति में बदलाव की आवश्यकता है। बदलाव की यह शुरुआत कहां से और कैसे होनी चाहिए? शिक्षा पहला पड़ाव है। सर्वशिक्षा अभियान और शिक्षा का अधिकार कानून यह कहता है कि देश के प्रत्येक बच्चे को अनिवार्य रूप से शिक्षा मिलनी चाहिए। बावजूद इसके अधिकांश रेगुलर स्कूल विकलांगता के शिकार बच्चों को प्रवेश देने में आनाकानी करते हैं। वे बुनियादी ढांचे के अभाव का बहाना बनाते हैं, खासकर प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव का। शायद वे सही हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्यों देश के बहुत सारे स्कूल ऐसा रूप ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं जिससे उनमें हर तरह के बच्चे भलीभांति शिक्षा ग्रहण कर सकें। उनके सिर पर किसने बंदूक तान रखी है? मुझे लगता है कि कमी खुद हमारे अंदर है। हममें विकलांग बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने के लिए न तो विचार हैं, न जच्बा और शायद दिल भी नहीं। आइए हम इस स्थिति को बदलें। अगर हम आज से ही शुरुआत कर दें तो प्रत्येक स्कूल दो से तीन वर्ष में ऐसा रूप ग्रहण कर सकता है जिससे वे विकलांग बच्चों को भी अपने यहां शिक्षित कर सकें। प्रत्येक स्कूल का यही लक्ष्य होना चाहिए।
मौजूदा समय विकलांग बच्चों में मात्र दो प्रतिशत ही शिक्षित हैं। यह एक चिंताजनक स्थिति है, जिस पर सभी को विचार करना चाहिए। शिक्षा की बुनियाद के बिना कोई भी भी बच्चा जीवन में अपने मकसद तक नहीं पहुंच सकता है। रेगुलर स्कूलों में विकलांग बच्चों को प्रवेश देने का अवसर उपलब्ध कराने से इन्कार कर हम उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित कर रहे हैं। हम यह भूल रहे हैं कि इस अवसर के बिना वे जिंदगी में कुछ नहीं बन सकते हैं। इसके अतिरिक्त हम सामान्य बच्चों को भी उनके साथ घुलने-मिलने का अवसर देने से इन्कार कर रहे हैं। सामान्य बच्चे भी उनसे काफी कुछ सीख सकते हैं, उनके साथ मित्र के रूप में बड़े हो सकते हैं। यही बात दोनों पक्षों के लिए लागू होती है। विकलांगता के शिकार बच्चों को शिक्षित कर हम उनके उत्पादक बनने का आधार तैयार कर सकते हैं, जिससे न केवल वे अपनी देखभाल खुद कर सकते हैं, बल्कि अपने परिजनों की भी मदद कर सकते हैं।
सरकार कहती है कि हमारे यहां की दो प्रतिशत आबादी विकलांगता की शिकार है। अनेक विशेषज्ञ और गैर सरकारी संगठन कहते हैं कि यह प्रतिशत 6 है। मुझे लगता है कि इस प्रतिशत को 6 से 10 प्रतिशत के बीच रहना सुरक्षित होगा। आइए हम इसे 8 प्रतिशत मान लें। 1.2 अरब आबादी का 8 प्रतिशत 9 करोड़ 60 लाख होता है। यह इंग्लैंड की आबादी [5.1 करोड़], फ्रांस [6.5 करोड़] और जर्मनी [8 करोड़] से अधिक है। जावेद अबीदी कहते हैं कि हमारे समाज को यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम अपने देश की 9 करोड़ से अधिक आबादी को अशिक्षित, बेरोजगार, अनुत्पादक रखना चाहते हैं? क्या हमें इसके लिए प्रयास नहीं करने चाहिए कि यह आबादी शिक्षित हो, रोजगार में लगी हो, उत्पादक हो, खुद अपनी और अपने परिजनों की देखभाल करने में सक्षम हो। उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर ही हम उन्हें विकास और अपने देश की संपदा में योगदान देने का मौका दे सकते हैं। यह काम उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा में शामिल करके ही किया जा सकता है। यही बुनियादी बात है।
जयहिंद, सत्यमेव जयते!
अमेरिका में 12 प्रतिशत आबादी अशक्त-विकलांग के रूप में गिनी जाती है। इंग्लैंड में यह प्रतिशत 18 है तो जर्मनी में 9 प्रतिशत लोग विकलांग की श्रेणी में आते हैं। भारत में सरकारी आंकड़ों के अनुसार दो प्रतिशत लोग विकलांग की श्रेणी में आते हैं। विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसरों को प्रोत्साहन देने वाले केंद्र एनसीपीईडीपी के जावेद अबीदी इन आंकड़ों के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। भारतीय वातावरण अथवा माहौल में ऐसी क्या खास बात है कि हमारे यहां दुनिया के अन्य देशों की तुलना में केवल 1/10 अथवा 1/5 अशक्त लोग ही हैं। क्या इस मामले में अपने देश में हुई गिनती में कोई खामी हुई है? यह चौंकाने वाली बात है कि 2000 तक यानी आजादी के 53 साल बाद भी भारत की जनगणना रिपोर्ट में एक भी अशक्त व्यक्ति नहीं गिना गया। दूसरे शब्दों में कहें तो जो लोग अपने देश में नीतियों का निर्धारण करते हैं, फैसले लेते हैं, सरकारी योजनाओं के लिए धन का आवंटन करते हैं उनके दिमाग में विकलांगों का अस्तित्व ही नहीं है। साफ है कि हम उनके लिए कुछ नहीं करते हैं। लिहाजा आजादी के बाद पहले 53 वर्षो तक हम अपने देश में बुनियादी ढांचे का निर्माण तो करते रहे, लेकिन हमने विकलांगों के लिए कुछ करने अथवा उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी। हमारा बुनियादी ढांचा विकलांगों का हितैषी नहीं है। इसका परिणाम यह है कि वे और अधिक कठिनाइयों से घिरते जा रहे हैं।
हम विकलांग लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं। हमारे शो में आए एक अन्य एक्सपर्ट केतन कोठारी ने हमें बताया कि व्यापक रूप से हम विकलांग लोगों के प्रति दो तरह की प्रतिक्रिया करते हैं। पहली यह कि उन्होंने जरूर अपने पूर्व जन्म में कुछ गलत किया होगा जिसके कारण उन्हें इस जन्म में विकलांग के रूप में जन्म लेना पड़ा अर्थात उन्हें यह सजा मिलनी ही चाहिए और दूसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि आइए हम उनका इस्तेमाल स्वर्ग का टिकट पाने के लिए करें। इस नजरिए के तहत उन्हें दया का पात्र समझा जाता है और उन संस्थाओं को कुछ दान दिया जाता है जो विकलांग लोगों के कल्याण के लिए काम कर रही हैं। यदि हममें से अधिकांश लोग इस तरह का व्यवहार करते हैं तो इसका मतलब है कि हमें आईने में अपनी एक दुखद तस्वीर देखनी चाहिए।
इस स्थिति में बदलाव की आवश्यकता है। बदलाव की यह शुरुआत कहां से और कैसे होनी चाहिए? शिक्षा पहला पड़ाव है। सर्वशिक्षा अभियान और शिक्षा का अधिकार कानून यह कहता है कि देश के प्रत्येक बच्चे को अनिवार्य रूप से शिक्षा मिलनी चाहिए। बावजूद इसके अधिकांश रेगुलर स्कूल विकलांगता के शिकार बच्चों को प्रवेश देने में आनाकानी करते हैं। वे बुनियादी ढांचे के अभाव का बहाना बनाते हैं, खासकर प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव का। शायद वे सही हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्यों देश के बहुत सारे स्कूल ऐसा रूप ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं जिससे उनमें हर तरह के बच्चे भलीभांति शिक्षा ग्रहण कर सकें। उनके सिर पर किसने बंदूक तान रखी है? मुझे लगता है कि कमी खुद हमारे अंदर है। हममें विकलांग बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने के लिए न तो विचार हैं, न जच्बा और शायद दिल भी नहीं। आइए हम इस स्थिति को बदलें। अगर हम आज से ही शुरुआत कर दें तो प्रत्येक स्कूल दो से तीन वर्ष में ऐसा रूप ग्रहण कर सकता है जिससे वे विकलांग बच्चों को भी अपने यहां शिक्षित कर सकें। प्रत्येक स्कूल का यही लक्ष्य होना चाहिए।
मौजूदा समय विकलांग बच्चों में मात्र दो प्रतिशत ही शिक्षित हैं। यह एक चिंताजनक स्थिति है, जिस पर सभी को विचार करना चाहिए। शिक्षा की बुनियाद के बिना कोई भी भी बच्चा जीवन में अपने मकसद तक नहीं पहुंच सकता है। रेगुलर स्कूलों में विकलांग बच्चों को प्रवेश देने का अवसर उपलब्ध कराने से इन्कार कर हम उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित कर रहे हैं। हम यह भूल रहे हैं कि इस अवसर के बिना वे जिंदगी में कुछ नहीं बन सकते हैं। इसके अतिरिक्त हम सामान्य बच्चों को भी उनके साथ घुलने-मिलने का अवसर देने से इन्कार कर रहे हैं। सामान्य बच्चे भी उनसे काफी कुछ सीख सकते हैं, उनके साथ मित्र के रूप में बड़े हो सकते हैं। यही बात दोनों पक्षों के लिए लागू होती है। विकलांगता के शिकार बच्चों को शिक्षित कर हम उनके उत्पादक बनने का आधार तैयार कर सकते हैं, जिससे न केवल वे अपनी देखभाल खुद कर सकते हैं, बल्कि अपने परिजनों की भी मदद कर सकते हैं।
सरकार कहती है कि हमारे यहां की दो प्रतिशत आबादी विकलांगता की शिकार है। अनेक विशेषज्ञ और गैर सरकारी संगठन कहते हैं कि यह प्रतिशत 6 है। मुझे लगता है कि इस प्रतिशत को 6 से 10 प्रतिशत के बीच रहना सुरक्षित होगा। आइए हम इसे 8 प्रतिशत मान लें। 1.2 अरब आबादी का 8 प्रतिशत 9 करोड़ 60 लाख होता है। यह इंग्लैंड की आबादी [5.1 करोड़], फ्रांस [6.5 करोड़] और जर्मनी [8 करोड़] से अधिक है। जावेद अबीदी कहते हैं कि हमारे समाज को यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम अपने देश की 9 करोड़ से अधिक आबादी को अशिक्षित, बेरोजगार, अनुत्पादक रखना चाहते हैं? क्या हमें इसके लिए प्रयास नहीं करने चाहिए कि यह आबादी शिक्षित हो, रोजगार में लगी हो, उत्पादक हो, खुद अपनी और अपने परिजनों की देखभाल करने में सक्षम हो। उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर ही हम उन्हें विकास और अपने देश की संपदा में योगदान देने का मौका दे सकते हैं। यह काम उन्हें मुख्य धारा वाली शिक्षा में शामिल करके ही किया जा सकता है। यही बुनियादी बात है।
जयहिंद, सत्यमेव जयते!

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